दृष्टि का जाल
मैंने ऐसा सुना है। एक समय भगवान बुद्ध पाँच सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ राजगृह और नालंदा के बीच लंबी यात्रा पर थे। उसी मार्ग पर सुप्पिय नामक एक परिव्राजक (घूमने वाला तपस्वी) और उसका शिष्य ब्रह्मदत्त भी यात्रा कर रहे थे।
उस यात्रा के दौरान, सुप्पिय परिव्राजक कई प्रकार से बुद्ध, उनके धर्म और उनके संघ की निंदा (बुराई) कर रहा था। लेकिन, उसका शिष्य ब्रह्मदत्त इसके बिल्कुल विपरीत बुद्ध, धर्म और संघ की प्रशंसा (गुणगान) कर रहा था। इस प्रकार, वे गुरु और शिष्य एक-दूसरे के विरुद्ध बातें करते हुए भगवान बुद्ध और भिक्षु संघ के पीछे-पीहे चल रहे थे।
तब भगवान बुद्ध एक रात के विश्राम के लिए भिक्षुओं के साथ अंबलट्ठिका उद्यान के 'राजागारक' (राजा के विश्राम गृह) में ठहरे। सुप्पिय और ब्रह्मदत्त भी उसी स्थान पर ठहरे। वहाँ भी सुप्पिय बुद्ध की निंदा करता रहा, जबकि ब्रह्मदत्त उनके गुणों का वर्णन करता रहा। इस तरह, वे गुरु और शिष्य एक-दूसरे से पूरी तरह विपरीत विचारों के साथ वहाँ रहे।